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अष्टावक्र गीता-दोहे -8

अष्टावक्र-गीता-8
विमल-एक-चैतन्य मैं,जग असत्य है धूल।
इसकी तो औषधि नहीं,द्वैत दुखों का मूल।।

खुद में कल्पित सकल गुण,मैं हूँ ज्ञान-स्वरूप।
इन सबसेअनभिज्ञ हो,स्थित रहूँ अनूप।।

मुझे नहीं बंधन रहे,नहीं मुक्ति की भ्रांति।
मैं निराश्रयी,जग रहित,जग स्थित सँग शांति।।

रहे नहीं यह जग सदा,निश्चित रह न शरीर।
शुद्ध और चैतन्य बस,आत्मा रहे अभीर।।

स्वर्ग-नरक-भय साथ ही,बंधन-मोक्ष-शरीर।
सभी कल्पना मात्र ये,हूँ मैं चेतन-थीर ।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

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6 Comments

नंदिता राय

21-Feb-2024 11:50 PM

Nice

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Shnaya

21-Feb-2024 01:05 PM

Nice one

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Mohammed urooj khan

21-Feb-2024 12:52 PM

👌🏾👌🏾👌🏾

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